Prevention of Diabetes: स्वस्थ जीवनशैली की ओर एक जागरूक कदम

एक व्यक्ति ग्लूकोज़ मीटर से ब्लड शुगर की जांच कर रहा है, जिसमें 6.2 mmol/L का स्तर दिख रहा है। यह मधुमेह नियंत्रण और स्वास्थ्य निगरानी का एक हिस्सा है।

डाइबिटीज एक ऐसी स्वास्थ्य स्थिति है, जिसमें शरीर में इंसुलिन का उत्पादन प्रभावित होता है। इंसुलिन वह हार्मोन है जो ब्लड शुगर को नियंत्रित करता है, लेकिन जब यह ठीक से काम नहीं करता, तो शर्करा का स्तर बढ़ जाता है। यह समस्या ज्यादातर अनियमित खानपान, तनाव और गतिहीन जीवनशैली के कारण होती है। डाइबिटीज दो मुख्य प्रकार की होती है टाइप 1 और टाइप 2। टाइप 1 ज्यादातर बच्चों में होती है, जबकि टाइप 2 वयस्कों में आम है। इसे समझकर समय पर सावधानी बरतना जरूरी है।

डाइबिटीज के शुरुआती लक्षणों को पहचानना बेहद जरूरी है ताकि इसे समय पर नियंत्रित किया जा सके। बार-बार प्यास लगना, ज्यादा पेशाब आना, अचानक वजन कम होना और थकान इसके आम संकेत हैं। कुछ लोगों को भूख बढ़ने, घाव देर से भरने या त्वचा में खुजली की शिकायत भी होती है। अगर आपको ये लक्षण दिखें, तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें और ब्लड टेस्ट कराएं। समय पर जांच से डाइबिटीज को बढ़ने से रोका जा सकता है। इन लक्षणों को नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है।


प्री-डाइबिटीज वह स्थिति है जब आपका ब्लड शुगर सामान्य से ज्यादा हो, लेकिन डाइबिटीज की सीमा तक न पहुंचा हो। फास्टिंग शुगर लेवल 100-125 और खाने के बाद 140-180 के बीच होने पर यह स्थिति बनती है। यह एक चेतावनी है कि अगर जीवनशैली में बदलाव न किया गया, तो डाइबिटीज हो सकती है। प्री-डाइबिटीज को सही खानपान और व्यायाम से नियंत्रित किया जा सकता है। इस चरण में सजगता बरतकर आप बड़ी बीमारी से बच सकते हैं। इसे हल्के में न लें।


डाइबिटीज का खतरा उन लोगों में ज्यादा होता है, जिनके परिवार में यह बीमारी पहले से रही हो। मोटापा, हाई ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल की समस्या और तनाव भी इसके जोखिम को बढ़ाते हैं। महिलाओं में पॉलीसिस्टिक ओवरी डिजीज (पीसीओडी) एक बड़ा कारण हो सकता है। गर्भावस्था के दौरान गैस्टेशनल डाइबिटीज का खतरा भी बढ़ जाता है। इसके अलावा, कम शारीरिक गतिविधि और अनियमित दिनचर्या भी डाइबिटीज को निमंत्रण देती है। जोखिम को समझकर सावधानी बरतें।


टाइप 1 डाइबिटीज ज्यादातर बच्चों और युवाओं में देखी जाती है और यह एक ऑटोइम्यून स्थिति है। इसमें शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली पैंक्रियाज के बीटा सेल्स को नष्ट कर देती है, जिससे इंसुलिन बनना बंद हो जाता है। यह समस्या अक्सर 5 से 15 साल की उम्र में शुरू होती है और जीवन भर रहती है। ऐसे मरीजों को हर दिन इंसुलिन इंजेक्शन लेने की जरूरत पड़ती है। सही देखभाल और निगरानी से इसे नियंत्रित किया जा सकता है। माता-पिता को बच्चों के लक्षणों पर ध्यान देना चाहिए।


टाइप 2 डाइबिटीज डाइबिटीज का सबसे आम प्रकार है, जो 90% मरीजों में पाया जाता है। यह ज्यादातर वयस्कों में होती है और गलत जीवनशैली इसका मुख्य कारण है। अनियमित खानपान, मोटापा, तनाव और शारीरिक गतिविधि की कमी इसे बढ़ावा देती है। इसमें शरीर में इंसुलिन बनता तो है, लेकिन वह ठीक से काम नहीं करता, जिसे इंसुलिन रेजिस्टेंस कहते हैं। इसे दवाओं, डाइट और व्यायाम से नियंत्रित किया जा सकता है। स्वस्थ आदतें अपनाकर इसे रोका जा सकता है।


गैस्टेशनल डाइबिटीज गर्भावस्था के दौरान होने वाली एक अस्थायी स्थिति है, जिसमें ब्लड शुगर लेवल बढ़ जाता है। यह आमतौर पर गर्भावस्था के मध्य या अंतिम चरण में होती है और डिलीवरी के बाद सामान्य हो जाती है। लेकिन इसे नजरअंदाज करना माँ और बच्चे दोनों के लिए खतरनाक हो सकता है। ऐसे में डॉक्टर इंसुलिन की सलाह दे सकते हैं, क्योंकि टैबलेट्स सुरक्षित नहीं होतीं। गर्भवती महिलाओं को अपनी डाइट और शुगर लेवल की नियमित जांच करानी चाहिए।


लंबे समय तक अनियंत्रित डाइबिटीज शरीर के कई अंगों को नुकसान पहुंचा सकती है। यह हृदय रोग, किडनी फेल्योर, आँखों की रोशनी कम होना और नसों की समस्या का कारण बन सकती है। डाइबिटीज के मरीजों में स्ट्रोक और पैरालिसिस का खतरा 2-5 गुना बढ़ जाता है। इसके अलावा, बार-बार इन्फेक्शन, खासकर त्वचा और प्राइवेट पार्ट्स में, एक आम समस्या है। समय पर इलाज और सही देखभाल से इन जटिलताओं को कम किया जा सकता है।


डाइबिटीज को नियंत्रित करने में सही खानपान की अहम भूमिका है। रिफाइंड चीजों जैसे मैदा, चीनी और प्रोसेस्ड फूड से दूरी बनाएं। होल ग्रेन्स जैसे ज्वार, बाजरा और मोटा चावल अपनी डाइट में शामिल करें। तेल और घी का इस्तेमाल सीमित करें दिन भर में 3 चम्मच से ज्यादा नहीं। फाइबर युक्त सब्जियाँ और कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स वाले फल खाएं। खाने के साथ नियमित समय पर भोजन करना भी जरूरी है।


शारीरिक गतिविधि डाइबिटीज को रोकने और नियंत्रित करने का सबसे प्रभावी तरीका है। रोजाना 30-40 मिनट की वॉक, साइकिलिंग या एरोबिक्स करें। वेट रेजिस्टेंस एक्सरसाइज से इंसुलिन की संवेदनशीलता बढ़ती है, जो शुगर लेवल को कंट्रोल करती है। आजकल वर्क-फ्रॉम-होम के चलते लोग घर से बाहर कम निकलते हैं, जिससे मोटापा बढ़ रहा है। नियमित व्यायाम से न सिर्फ वजन नियंत्रित रहता है, बल्कि तनाव भी कम होता है। इसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाएं।


आयुर्वेद में डाइबिटीज को प्राकृतिक तरीकों से नियंत्रित करने के कई उपाय हैं। कड़वी चीजें जैसे करेला, मेथी दाना और नीम डाइबिटीज के मरीजों के लिए फायदेमंद हैं। दिन में तीन बार ही भोजन करें और भूख लगने पर ही खाएं। आयुर्वेद के अनुसार, ज्यादा बार खाने से इंसुलिन का उत्पादन बढ़ता है, जो ब्लड में जमा हो जाता है। इसके साथ ही तनाव कम करने के लिए योग और प्राणायाम भी करें। आयुर्वेदिक तरीकों से डाइबिटीज को प्रभावी ढंग से मैनेज किया जा सकता है।


प्री-डाइबिटीज को रोकना डाइबिटीज से बचने का पहला कदम है। इसके लिए अपनी डाइट में फाइबर की मात्रा बढ़ाएं और रिफाइंड शुगर से बचें। रोजाना कम से कम 30 मिनट की शारीरिक गतिविधि करें, जैसे तेज चलना या योग। वजन को नियंत्रित रखें अगर आपका वजन 5-7% कम हो जाए, तो डाइबिटीज का खतरा काफी कम हो जाता है। तनाव को मैनेज करने के लिए मेडिटेशन करें। नियमित जांच से अपने शुगर लेवल पर नजर रखें।


डाइबिटीज के मरीजों के लिए नियमित ब्लड शुगर की जांच बेहद जरूरी है। हर 3 महीने में HbA1c टेस्ट कराएं, जो पिछले 3 महीनों का औसत शुगर लेवल बताता है। इसके अलावा, किडनी फंक्शन, लिवर और कोलेस्ट्रॉल की जांच भी करवाएं। आँखों और पैरों की नियमित जाँच से जटिलताओं को रोका जा सकता है। सही समय पर जांच से इलाज में बदलाव किया जा सकता है। यह छोटा कदम बड़ी परेशानियों से बचा सकता है।


डाइबिटीज से लड़ने में जागरूकता सबसे बड़ा हथियार है। लोगों को इसके लक्षण, जोखिम और बचाव के तरीकों के बारे में पता होना चाहिए। स्कूल, कॉलेज और कम्युनिटी में जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। सरकार को भी डाइबिटीज की रोकथाम के लिए कदम उठाने चाहिए। स्वस्थ जीवनशैली को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ बनानी चाहिए। अगर हम सब मिलकर जागरूक हों, तो डाइबिटीज को बढ़ने से रोक सकते हैं।


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